⚑ जीवाजी नाईक सर्कले (सरखेल - नौसेनाप्रमुख )⚑
हिंदू मराठा योद्धा, सेनानी जीवाजी नाईक सर्कले इनका संपूर्ण इतिहास हिंदी में (The Whole History In Hindi)----शिवकालीन भौगोलिक इतिहास----
---किल्ले कोकणदिवा---
हिंदुस्तान की एक प्राचीन और शानदार पर्वत श्रृंखला "सह्याद्री" है। पर्वत श्रृंखला जो लगभग 600 करोड़ साल पहले ज्वालामुखी विस्फोट से बनी थी। यहा एक पहाड़ी है जिसे किला कोकणदिवा के नाम से जाना जाता है। वह पर्वत जो कोंकण और देश को जोड़ता है। स्वराज्य की राजधानी किले रायगढ़ के पूर्व में यह स्थित है। कोकणदिवा पहाड़ी के ऊपर (थोड़ा मध्य) जिसका अर्थ है कि घाट, यहां घोळ और गारजाई यह दो गाँव हैं। कोकणदिवा के ऊपर सात पानी की टंकियाँ स्थित हैं (वह पानी आज भी पीने योग्य है)। यहाँ एक लेनी (पहाड़ियों में खोदी हुई जगह) है। किले कोकणदिवा पर्वत में एक मार्ग हे जो कोंकण और खिंड को जोड़ता है, जो कि कावल्या बावल्या खिंड के नाम से जाना जाता है।
शिव काल में, किले कोकणदिवा को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है | शिव काल से रायगड की सुरक्षा की जिम्मेदारी नाईक सर्कले परिवार को छत्रपति परिवार से मिली हुई थी। किल्ले कोकणदिवा पर, मावले हमेशा स्तिथ थे । यदि रात के समय, कोई भी शत्रु अगर सेना लेकर आया तो, कोकणदिवा पर्वत के ऊपर की ओर मशाल जलाकर रायगढ़ को संकेत देते थे। दिन में घास (धान) जलाकर रायगढ़ को इशारा दिया जाता।
कोकणदिवा शिखर (माथा)
--- गाव सांदोशी ---
सांदोशी गाँव सह्याद्री घाटी में बसा एक खूबसूरत गाँव है।
यह गाँव रायगढ़ किले से 15 किमी दूर है। गाँव , किले कोकणदिवा की तलहटी में स्थित है। युद्ध में शहीद हुए वीरो की वीरगली(वीरो की प्रतिमा) गांव में संरक्षित है, जो सर्कले घराणे के अतुलनीय युद्ध का प्रमाण है, उसे संभालकर रखा गया है। महाराष्ट्र में केवल सर्कले परिवार की प्रतिमा सबसे ऊँची है।
सर्कले परिवार की महिलायें और कई अन्य शहीद वीरों की महिलायें जिस मैदान की जगह पर सती गई, वह मैदान नदी के पास ही हैं।
शिवकाल के समय में सांदोशी गांव सबसे बड़ा बाजार था, लोगों से हमेशा भरा हुआ मुख्य स्थान है। उस वक्त का एक व्यापर मार्ग था। खाड़ी के रास्ते के माध्यम से जो सामान समुद्र से लाया जाता था, उन्हें सांदोशी के माध्यम से आगे पुणे, सातारा को भेज दिया जाता था।
छत्रपति संभाजी महाराज ने यही नाईक सर्कले जी के सांदोशी गांव के जंगल में बाघ को बिना शस्त्र के अपने हाथो से मार डाला था। शंभुछत्रपति के इस महापराक्रम से पावन हुआ यह गाव हे|
---कावळे बावळे खिंड---
कावळे बावळे खिंड की चौकी
यह कोकणदिवा के बिच एक खिंड है। इस खिंड का नाम कावले बावले खिंड है। यह खिंड शिव काल में जिंदा स्वरुप थी, इस बात का प्रमाण है कि यहाँ एक चौकी स्थित है जिसके वर्तमान में अवशेष दिखाई देते हैं, उसकी गिरी हुई दीवारें दिखाई देती है। यह चौकी सर्कले परिवार के देखरेख में थी। इसकी देखरेख नौ सिपाही करते थे, और जीवाजी नाईक सर्कले उनके प्रमुख थे। युद्ध के बाद, जीवाजी नाईक सर्कले जी की एक बड़ी प्रतिमा इस खिंड में बनाई गई है (350 साल पहले इस प्रतिमा को तराशा गया है)।
घोळ गारजाईवाड़ी गाव के मार्ग का पुराना मंदिर
घोल और गारजाईवाडी के घाटियों से जाते वक्त एक पुराना मंदिर है| इस गाव का ऐतिहासिक संबंध भी है कि कावल्या खिंड के युद्ध के दौरान घाट से आनेवाले शत्रु ने यहाँ अपना ढेरा डाला था।
----सरखेल नाईक सर्कले ; इनका इतिहास----
वर्तमान साक्ष्य और ऐतिहासिक जानकारी के अनूसर ,सर्कले परिवार का इतिहास, शिवकाल से थोड़ा पहले शुरू हुआ था। फ़ौज में "सरखेल" नौदल (इन्फैंट्री हेड) के पद पर नाईक सर्कले विराजमान थे ।
बाद में यह "सरखेल" के उत्थान के कारण इनका 'सर्कले' ऐसा नाम बन गया। जैसे शिर्के पाटिल, जिन्हें कुछ ऐतिहासिक कारणों के बाद शिवले पाटिल कहा जाता था, उसीही तरह यह "सरखेल" और (सरकिल्ले) थे जो किल्ले जितने में माहिर थे, इसलिए उनका अंतिम उपनाम फिर सर्कले किया गया था। कहते हे इनका मूल नाम ( सरकाळे ) था , जो की सातारा के मूल निवासी थे..आज भी सरकाळे खानदान के लोग सातारा और आसपास के इलाको में निवास करते है | इस बाद कुछ वक्त बीत गया। सिद्दी के समय में उनके दिन बदल गए। तट पर, सिद्दी का वर्चस्व धीर धीरे बढ़ने लगा। "सरखेल उर्फ़ सर्कले" जी का उस दौरान निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद, उनकी पत्नी अपने छोटे बच्चे को लेकर, रायगढ़ की तलहटी में स्थित सांदोशी गाँव में रहने आई। कहा जाता है कि सांदोशी गाव , छत्रपति ने उन्हें यह इनामस्वरूप दिया हुआ था। इस गाँव में उनकी पत्नी अपने छोटे बच्चे के साथ रहने लगी ।
यहां, यह छोटा बच्चा (जीवाजी सर्कले) धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। समय बिता। वह छोटा बच्चा अब बढ़ा हो गया था। पत्थर जैसी चट्टान की तरह वह बन चुका था । वह शरीर से मजबूत था। जैसे खून में ही उसे विरासत में शौर्य मिला था।
--- दूसरी ओर, श्री छत्रपति शिवाजी महाराज का स्वराज बढ़ने लगा ----
शिवाजीराजे शाहजीराजे भोसले अब छत्रपति होने वाले थे। छत्रपति शिवाजी महाराज ने एक अखंड स्वराज्य निर्माण किया। रायगढ़ किले को मराठा साम्राज्य की राजधानी के रूप में रखा गया था। उस समय स्वराज्य के प्रधानमंत्री मोरोपंत पेशवे थे। मोरोपंत खुद इस रायगढ़ किले को देखने आए थे। उन्होंने पुरे किले का निरीक्षण किया। किले की गहराई को देखा। उन्होंने किले के बारे में सभी से पूछताज करना शुरू कर दिया, क्योंकि स्वराज की राजधानी सुरक्षित होनी चाहिए।
इसी वजह से मोरोपंत पेशवे ने स्वयंम ही रायगढ़ के आसपास के इलखो का निरिक्षण किया।निरिक्षण करते हुए वे सांदोशी गाव आए । सांदोशी पर कोकाणदीवा पर्वत और उस में कावले बावले खिंड ,उनको थोड़ी चिंतीत कर रही थी । यह एक बहनेवाला मार्ग था, एक मुख्य परिवहन का स्थान था। इसलिए दुश्मन यहां से आने का डर था। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने सांदोशी गांव के ग्रामीण लोगों को एकत्र किया।
ग्रामीण एकत्र हुए और चर्चा शुरू हुई। सभी ग्रामीणों ने मोरोपंत को "जीवाजी नाईक सर्कले" का नाम बताया । उन्होंने जीवाजी के परिवार के बारे में गाव से पूछताज की। क्योंकि जिस व्यक्ति को रायगढ़ की रक्षा के लिए रखा जा रहा था , वह भी उतना ही शक्तिशाली और ईमानदार चाहिए । सर्कले परिवार के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त की। सर्कले जी के परिवार का इतिहास और सरखेल सर्कले जी के किये हुए पराक्रम का इतिहास मोरोपंतजी को पता चला। आखिर सब जानकारी प्राप्त करने के बाद मोरोपंत, जीवाजी के निवास पर गए।
पिता की तरह, वही शौर्य। यही कारण है कि मोरोपंतजी जीवाजी की बहादुरी को परखने के लिए खुद आए। मोरोपंत ने अपनी सभी वीर परीक्षाएँ लेनी शुरू कर दीं। यह सब परीक्षाओं, जैसे तीरंदाजी कौशल और तलवारबाजी में जीवाजी सर्कले अव्वल साबित हुए। सभी अपेक्षाएं पूरी हुईं।
अब जीवाजी सर्कले रायगढ़ की सुरक्षा के लिए तैयार थे। कोकणदिवा, कावले बावले में एक चौकी स्थापित की गई। इस पद पर, नौ पाईक और उनके शीर्ष प्रमुख नाईक के रूप में दस मावले तैनात किए गए। जीवाजी नाईक सर्कल दसवे और क्षेत्र के प्रमुख बने। किले कोकणदीवा, कावल्या खिंड, सांदोशी गांव और आसपास के सभी क्षेत्रों को उनकी देखरेख में रखा गया था। अब, राजधानी रायगड की सुरक्षा के लिए जीवाजी नाईक सर्कले पूरी तरह तैयार थे|
सर्कले परिवार को सम्मान स्वरुप ख़िताब - -
सरखेल (नौसेनाप्रमुख),
नाईक,
सरदार.
सर्कले परिवार को पालकी का मान प्राप्त था.
--भव्य ऐतिहासिक लढाई(युद्ध)--
||जय शिवशंभू||
🚩🚩एक अतुलनीय युद्ध🚩🚩
~🗡शौर्य गाथा~
यह समय 11 मार्च 1689 का है, जब छत्रपति संभाजी महाराज का निधन (फाल्गुन वैद्य 30) हुआ था। राजाराम महाराज, अब राजधानी रायगढ़ पर थे, वह उम्र से बहुत छोटे थे, उन्हे तुरंत गद्दी पर बिठाया गया, और छत्रपति घोषित किया। अब औरंगजेब ने मराठा साम्राज्य को समाप्त करने की थान ली थी। औरंगजेब ने रायगढ़ को घेरने के लिए और राजाराम राजें को पकड़ने के लिए सरदार शहाबुद्दीन को भेजा। जुल्फिकार खान की छोटी सेना पहले ही रायगढ़ का घेर चुकी थी। इस घेराबंदी को मजबूत करने के लिए औरंगजेब ने बहुत बड़ी सेना शहाबुद्दीन के साथ भेजी।

मुगल सरदार यानि बड़ी फ़ौज। शहाबुद्दीन पांच हजार (5000)की सेना लेकर निकला। रास्ते में पुणे के नजदीक उससे मानकोजी नामक एक मराठी सरदार शामिल हो गया । उस सरदार का कुछ, एक देढ़ हजार सैन्य शहाबुद्दीन को शामिल हुआ | ऐसे एकत्र मिलाकर लगभग ७००० सेना लेकर वह लोग रायगढ पर आक्रमण करने के लिए निकले।
सेना पुणे से निकली । देवघाट के रास्ते से, वे किले कोकणदिवा के पास आए। अब वे कावल घाट से कुछ दूरी पर आते ही रुक गए। वे पहाड़ के ऊपर घोल और गारजाईवादी गाँव पहुंचे और उन्होंने अपना डेरा जमाया।रायगढ़ किल्ले के टकमक टोक से ठीक सामने देखे तो दिखाई पड़ता हे एक पर्वत | इसका नाम हे किले कोकणदिवा पर्वत|
किल्ले कोकणदिवा की खिंड में शिवाजी महाराज के कूशल सेनानी, रायगढ़ किले की तलहटी के सांदोशी गाँव के "जीवाजी नाईक सर्कले "यहाँ तैनात थे। उनके साथ, और उनके नौ मावले भी थे। शिवाजी महाराज के काल में बहुतसी लड़ाइयों में सर्कले परिवार ने पराक्रम किए थे, जिस कारण महाराज ने सांदोशी गांव (खोर) उन्हें इनाम स्वरुप दिया था। नाईक सर्कल परिवार, पहले ("सरखेल" - नौसेना प्रमुख) थे, पर अब रायगढ़ के संरक्षण के लिए वह कोकणदिवा पर सज्य थे। उन्हे खान के आने की खबर मिली।
25 मार्च 1689 का दिन था, एक मजबूत दुश्मन आँखों के सामने खड़ा था। सोचने के लिए कोई समय ही नहीं । जीवाजी ने अपने नौ मावलो को अपने गुप्त स्थान पर जाने का हुक्म दिया। जीवाजी ने तो जैसे उन नौ मावलो को सारे शत्रुओं का अंत होने तक न मरने की सख्त आज्ञा दी थी| क्यूंकि अगर आज खिंड में शत्रु को न रोका गया, तो स्वराज्य के उदय को रूकावट लग जाती।
अब सारे नौ मावले , जीवाजी के साथ लड़ाई के लिए पूरी तरह से खिंड में तैयार थे। उनमे से आधे लोग यानि पांच-छह मावले खिंड के अपने गुप्त स्थानों पर छुप गए। जीवाजी नाईक सर्कले, अपने हाथ में एक समशेर लेकर और तीन-चार मावलों के साथ खिंड में, एक पहाड़ की तरह डटकर खड़े थे|
शहाबुद्दीन ने अपनी पहली एक हजार फ़ौज की टुकड़ी घोल गारजाई गाँव से खिंड भेज दी। अब दस मावलों के खिलाफ हजारोंकी लड़ाई शुरू हो गई थी। क्षण में लड़ाई भड़क उठीं। दीन दीन शब्द से हर हर महादेव गरजते हुए मावळे भीड़ गए। कमर की समशेर शत्रु पर टूट पड़ीं। शिव छत्रपति द्वारा सिखाई हुई गुरिल्ला चालें अब रंग ले रही थी। किसीने तीरों से हमला चढ़ाया। और किसी ने बरसाए भाले।
मराठाओं की गोफन हवा में घुमाने लगी, आकाश की उल्का जैसे, गोफन आग की तरह शत्रु पर बरस रही थी।
कभी तलवार की धार शत्रु पर पड़ रही थी , तो कौन बडे पत्थर मुघलो पर डाल रहे थे । युद्ध के चलते, मावले बिच में ही जाते और शत्रु के कुछ लोगों को मारकर वापस अपने गुप्त स्थान पर आकर छुपते।ऐसा करके नाईक सर्कले और उन नौ मावलो ने मिलकर हजारों ख़त्म कर दिया था।
अब शहाबुद्दीन ने दूसरी टुकड़ी को खिंड में भेज दिया क्योंकि उसकी पहली टुकड़ी वापस नहीं आई थी । फिर से मराठों ने, अपनी गोफन घुमाकर मारना शुरू कर दिया। पत्थर बरसाए । जीवाजी सर्कल दुश्मन पर यम की तरह टूट पड़े थे। मावलों के तीर तलवार से मोघल झुलस गए थे। मोघल सेना के मरे हुए लोगों की संख्या धीरे धीरे बढ़ रही थी। अब तो दूसरी टुकड़ी की भी वही हालत हो गई । फिर हजारों की टुकड़ी मारी गई। लेकिन इस समय टुकड़ी के कुछ पीछेवाले सैनिकों ने यह जाकर शहाबुद्दीन खान को बताया।
जैसे ही शहाबुद्दीन को यह पता चला , वह सारी सेना लेकर खिंड में आया। तब तक आधे से ज्यादा फ़ौज को इन १० मराठों ने ख़त्म कर दिया था।
अब मावलों ने अपना गुप्त स्थान छोड़ दिया और जीवाजी सर्कले जी के साथ खिंड में मुघलो के सामने आ खड़े हुए ।
सभी ओर तलवारें चल, मुग़ल मरने लगे। जो शत्रु सामने आए उसे काटना, इतना ही हो रहा था। ऐसे ही कुछ घंटे बित गए। लगभग दस घंटे हो चुके थे। जीवाजी सर्कले इनका यह पराक्रम देख मुग़ल सरदार के होश उड़े थे। (जीवाजी ने खान की लगभग ४००० से अधिक सेना को ख़त्म कर दिया था।)
कुछ ही घंटों में यह खबर सांदोशी गाँव में समझ गई। उस समय, गोदाजी जगताप, जो उस वख्त सांदोशी गांव में मौजूद थे, उन्होंने गाव के कुछ साठ सत्तर मावले लेकर जीवाजी की मदद के लिए खिंड की ओर गए। अब मराठों की साठ सत्तर की यह फ़ौज खिंड में पहुँच गई। यह फ़ौज दस मराठों को जा मिली|
भयानक युद्ध शुरू हो गया । खून की नदियां बह रही थी । जीवाजी सर्कले लहू में जैसे भीग गए। वह एक डूबते चमकते हुए सूरज की तरह लाल हो गए थे। इन मराठाओं ने कहर बरसा दिया था। खिंड का रक्त से अभिषेक हुआ था। खान अब पसीने से तर था, मराठों के तूफानी वार से खान की सेना और पठान काटे गए। सेना अब ख़त्म हो रही थी। अब खान जान चूका था, कि अब उसकी हार निश्चित है। मोका देखकर शहाबुद्दीन खान कुछ बचे १००-१५० सैनिकों को लेकर खिंड से भाग गया।
आखिर मावले युद्ध जित गए। मात्र, जीवाजी नाइक सर्कले इन्होंने इस युद्ध में अपने प्राण खो दिए। लेकिन अपनी आखरी साँस तक उन्होंने किसी भी शत्रु को खिंड से आगे जाने नहीं दिया। उन्होंने जित के साथ झंडे के सामने अपना शरीर रख अपने प्राण त्याग दिए। १६ घंटों से चल रहा ये युद्ध अब शांत हो चूका था। स्वरज्य पर आया बड़ा खतरा अब टल चूका था। युद्ध ख़त्म होने के बाद बचे हुए मराठा मावले जीवाजी और शहीद हुए सारे मावलों के शव को सांदोशी गांव लेकर गए। गांव में जीवाजी और शहीद हुए मावलों पर अंतिमसंस्कार किये गए, और उनकी पत्नियाँ सती गई।
यह बलिदान असामान्य था !!
बाद में शहाबुद्दीन दक्षिण भाग गया और हैदराबाद में उसके निजाम-उल-मुल्क परिवार का जन्म हुआ, वह यही भागा हुआ शहाबुद्दीन का ही परिवार था।
16 घंटे छिड़ा यह युद्ध, 16 घंटे की लड़ाई और आखिरकार मराठों का बलिदान और फिर मराठाओं की जीत| आखिर कैसे है ये मराठा। जीवाजी नाईक सर्कले जी का जीवन सार्थक हो गया, क्योंकि छत्रपति राजाराम महाराज लढाई के तुरंत बाद किले रायगड पर से दक्षिण सुरक्षित पहुंच गए।
एक मावळा सौ के बराबर था। दस मराठों ने हज़ारों शत्रु फ़ौज को मारा। दस मावलो ने हजारों को मौत के घाट उतारे.. केवल 60-70 मावलों ने लगभग सात हजार गनीम को हराया, पूरी सेना को पराजत किया| क्या है पराक्रम?..अपार स्वराज्य प्रेम और स्वामी निष्ठा।
इस युद्ध परिणाम यह हुआ की (शाका 1611 शुल्क स्तर, चैत्र वैद्य 10), छत्रपति राजाराम महाराज प्रतापगढ़ पहुंचे और तुरंत वहाँ से दक्षिण में, सरसेनापति हरजीराजे परसोजी राजे महाडीक के यहाँ सुरक्षित पहुँच गए। इस कारण अगले कुछ ही वर्षों के दौरान, एक असीमित मराठा साम्राज्य का उदय हुआ।
यह पराक्रम तीनसौ बांदल और बाजीप्रभु देशपांडे द्वारा लढी गई पावन खिंड| और हजारों मुग़लों के साथ लढने वाले सरसेनापती प्रतापराव गूजर और उनके छह साथीयों की एकत्रित याद दिलाता है।
आज भी, इस लड़ाई में, शहीद नाईक सर्कले और उनके साथियों की वीरता के साक्ष देनेवाले, वीरगली, समाधि, सतीशिल गाँव में हैं।
300 साल पहले खिंड में बनाई उनकी "मूर्ति", उनके अतुलनीय युद्धकौशल और पराक्रम की गवाही देती है। कहा जाता है कि इस अनोखे पराक्रम को देखने के बाद, छत्रपति राजपरिवार ने नौसेनाप्रमुख सर्कले परिवार को पंचमधातु से बनाया हुआ प्रशस्ति पत्र दिया था, जो पंच पंचुत्र द्वारा, सर्कल परिवार को लिखा गया था (वर्तमान में वह उपलब्ध नहीं हे, लेकिन इसकी खोज जारी हे)
25 मार्च यह दिन , नाईक सर्कले इनके सांदोशी गाव में एक ( शौर्य दिवस ) के रूप में बढ़े उत्साह से मनाया जाता हे|
दुर्गवीर प्रतिष्ठान ने इस भव्य इतिहास की खोज की|
अगर सरखेल जीवाजी नाईक सर्कले उस वक्त लढ़े न होते तो इसमे कोई शक नहीं ,की.. इतिहास कुछ और ही होता...!!!
🚩जय शिवराय🚩
-----गावातील ऐतिहासिक लढाईचे पुरावे(साक्ष)----
वीरगळी सतीशीळा
दुर्गवीर प्रतिष्ठान तर्फे से गाँवमे लगाया हुआ फलक.
--- शौर्य दिन ----
|| धन्यवाद||
....समस्त सर्कले नाईक परिवार ,सांदोशी..रायगड।।
सांदोशी गाव की जानकरी : http://sarkale.blogspot.com/